Monday, September 12, 2016

अमरीकन सन्दर्भ : मंत्र और भारतीय भाषाएँ



इस बार की अमरीका यात्रा 2016 के कुछ विचार-बिंदु
वृषभ प्रसाद जैन

धर भारतीय मंत्र-विज्ञान के प्रयोगों और उन प्रयोगों से जुड़े सिद्धान्त पर व्याख्यानों के बहाने अमरीका जाने का योग हुआ और एक माह से कुछ अधिक समय का प्रवास रहा। इस प्रवास में अनेक भारतवंशियों या यूँ कहें कि भारतीय मूल के भारतीय मित्रों के घरों में जाने और रहने का योग भी हुआ, पर मैं गुजराती-भाषी मित्रों के यहाँ अधिक गया भी और अधिक रहा भी। इस यात्रा में त्रिविध संयोग हुए-- 1. भारतीय मूल के उन मित्रों से भी मिलना हुआ, जो जन्मतः जैन नहीं हैं, बल्कि उनमें यहाँ तक कि जन्मतः मुस्लिम भी हैं और उन्होंने भारतीय मंत्रों का प्रयोग अपने जीवन में किया है। जैसा जिसका विश्वास के आधार पर कुछ को कम परिणाम मिले, कुछ को बहुत अधिक परिणाम भी; 2. भारतीय मूल के उन जैन धर्मावलम्बी मित्रों से भी मिलने का योग हुआ, जो भारतीय मंत्र-विज्ञान के विविध प्रयोगों से सम्यक् रूप से जुड़ना चाहते हैं; 3. भारतीयेतर मूल के कुछ ऐसे मित्रों से भी मिलना हुआ, जो भारतीय मंत्र विज्ञान को जानना और समझना चाहते हैं व प्रयोग के स्तर पर उतरना भी चाहते हैं। …..उपर्युक्त तीनों प्रकारों के मित्रों में कुछ मेरे परिवार की कई पीढ़ियों के सम्बंध के हैं, कुछ वर्तमान पीढ़ी के सम्बंध के और कुछ परिवारेतर लोग भी।
भारतीय मंत्र-विज्ञान वस्तुतः भारतीय प्राचीन भाषाओं के वर्ण रूप लेखीय प्रतीकों के समुचित उच्चारण-गत प्रयोग पर आधारित है और मान्यता यहाँ तक है कि वर्णमाला का प्रत्येक अक्षर या प्रत्येक वर्ण बीज मंत्र है। प्राचीन काल से चले आ रहे  इन बीज मंत्रों के सम्यक् प्रयोग को अगर हम सीख जाएँ, तो यह लोक ही नहीं, हमारा पर-लोक भी सुधर जाये, हमारी जीवन पद्धति बदल जाये। इन बीज मंत्रों की सम्यक् साधना हमारे जीवन का अभिन्न अंग थी, पर हम आज इससे दूर हो गये हैं,  इसीलिए हम दिनों-दिन आध्यात्मिकता से भी दूर होते गए हैं, भौतिकता में भी पिछड़ते गए हैं। जब मंत्र के प्रयोग अमेरिकन नागरिक के जीवन में आने वाले संकट को दूर करने में सहायक बन सकते हैं, तो हमें सोचना चाहिए कि ये मंत्र जब भारतीयों की विरासत के मंत्र हैं, तो उनके संकट दूर करने में सहायक क्यों न बनेंगे?
अब मैं थोड़ी-सी बात भारतीय मूल के अमेरिकन मित्रों की भाषायी स्थिति को लेकर करना चाहता हूँ। मैं जिन भारतीय मूल के मित्रों से मिला, उनमें कुछ पंजाबी भाषी हैं, कुछ उर्दू भाषी हैं, कुछ तेलुगु-भाषी हैं, कुछ तमिल-भाषी हैं, कुछ कन्नड़-भाषी हैं, कुछ मराठी-भाषी हैं, कुछ गुजराती और कुछ हिंदी भाषी भी हैं। इन सब के घरों की मूल भाषाएँ, अगली पीढियों को यदि आप ठीक तरह से देख पा रहे हैं तो, कमोवेश मरण के खतरे के साथ हैं। न पंजाबी अछूती है, न उर्दू; न तेलुगु अछूती है, न तमिल; न गुजराती अछूती है, न मराठी; पर इनमें सबसे अधिक खतरा और सबसे जल्दी खतरा यदि किसी के सामने है, तो वह है हिन्दी भाषी अगली पीढ़ी के सामने। यह सब जानते ही हैं कि भाषा मर गई, तो पहचान मर जाती है। आप की मूल परंपरा आप से छूट जाती है। आप की संस्कृति भी आप के साथ दफन हो जाती है। आप का धर्म भी आप से छूट जाता है। …..और इन भारतीय मूल के उन लोगों की वर्तमान परिस्थिति में ऐसा होता दिख रहा है और इसका सबसे नजदीक परिणाम हिंदी भाषियों के साथ होता दिख रहा है और खास कर पश्चिमी क्षेत्र के हिंदी भाषियों के साथ, जिनमें बृजभाषी हैं, खड़ी बोली भाषी हैं, हरियाणवी-भाषी हैं और राजस्थानी-भाषी हैं। असल में इनका संकट यह है कि ये खुद तो हिंदी भाषी हैं, पर व्यापार, बाजार और स्थानीय समाज की जरूरत के कारण उसी अमरीकन बलाघात और स्वराघात अर्थात् अनुतान की अँग्रेजी बोलने और समझने लगे हैं, पर इसके साथ ही साथ चूँकि इनके बच्चे पले-ढ़े अमेरिकन  परिदृश्य में हैं, इसलिए वे जो अँग्रेजी बोलते हैं और उनकी अँग्रेजी भी अमेरिकन अनुतान की अमेरिकन ढंग की है, बात इतनी ही नहीं, उनके परिकर  में अँग्रेजी बोली घर के बाहर ही नहीं, घर में भी घुस आई है अर्थात् उनके माँ-बाप भी उन से अँग्रेजी में बात करने लग गये हैं, यहाँ तक कि खाने की मेज पर भी, तो बताओ भला, उनकी हिंदी कैसे बचती! उनमें से कुछ बच्चे थोड़ी हिंदी समझते हैं, थोड़ी हिंदी बोलने की कोशिश भी करते हैं, पर निश्चित मानिये कि उनकी अगली पीढ़ी, यदि उसने हिंदी क्षेत्र जैसी हिंदी रखने की कोशिश नहीं की, तो हिंदी से वंचित हो जायेगी और फिर वे भारतीय मूल के तो होंगे, हिंदी मातृभाषियों की संतान भी होंगे, पर वे निश्चित रूप से हिंदी से विपन्न होंगे। मेरे एक चाचा जी हैं, जो 60 के दशक में वहाँ चले गए थे, क्रिश्चियन महिला से विवाह कर लिया, वे स्वयं आधुनिक कहे जाने वाले वैज्ञानिक रहे हैं। मुझे लगता है कि धर्म में आस्था भी जरूर कम ही  रही होगी। उनकी क्रिश्चियन पत्नी अर्थात् मेरी चाची क्रिश्चियन-धर्म-परायण थीं। इसलिए उनके बेटे में भी क्रिश्चियन संस्कार चले गए, वह आज भी चर्च जाता है, जबकि आज वे जीवित नहीं हैं, तब भी; पर नाम के आगे केवल पिता का उपनाम जैन लिखता है। यह स्थिति केवल मेरे भाई की हो, यह सत्य नहीं है, उन जैसे अनेकों की होगी। कुल मिलाकर जिनकी भी वैसी स्थिति है, न उनकी भाषा बची है, न संस्कृति; न खान-पान बचा है,  न वेश-भूषा, न रहने के ढ़ंग आदि। पंजाबी और उर्दू भाषियों की स्थिति ऐसी ही नहीं, पर इसके आस-पास जैसी-सी है।
तेलुगु, तमिल, कन्नड़, गुजराती और मराठी भाषी कुछ अच्छी स्थिति में हैं, क्योंकि इनके घरों में इनकी भाषाएँ जीवित हैं अर्थात् इनके बच्चे इनसे गुजराती, मराठी, कन्नड़, तमिल, तेलुगु आदि में बात करते हैं। यद्यपि उनकी इन भारतीय भाषाओं में बीच-बीच में अँग्रेजी का घाल-मेल है, पर हैं इनकी अपनी भाषायें बहुत अंशों में जीवित। तथ्य तो यह भी है कि  उनका स्वराघात अँग्रेजी-जैसा है, पर भाषायें कुछ अंशों में बची हैं, लेकिन वे भी माता-पिता से उन-उन भाषाओं में बात करते दिखते हैं, पर कई-एक घरों में अकेले-अकेले बच्चे थे, इसलिए उनके भाई बहनों के साथ उनके व्यवहार की भाषा क्या है, यह ठीक से पता नहीं चल पाया, कुछ-एक घरों में भाई-बहनों के बीच में भी उनकी मूल भाषायें चल रही हैं, पर कई-एक घरों में उनका स्थान अँग्रेजी ने ले लिया है। जिनके घरों में उनका स्थान अँग्रेजी ने ले लिया है, उनके यहाँ भी उनकी ये भारतीय भाषायें शीघ्र मरती दिख रही हैं। भारतीय संदर्भों में भी भारतीय भाषाओं पर भी संकट गहराता जा रहा है, पर उनका परिदृश्य और उन पर दबाव भिन्न तरह के हैं, जिन पर अलग से चर्चा करेंगे। हमें इन-सब की रक्षा के कुछ दूरगामी उपाय और कुछ त्वरित उपाय सोचने ही होंगे, तभी हम बचेंगे।
इन भारतीय मूल के मित्रों की, मित्रों के उत्तराधिकारियों की भाषाओं को बचाने के लिए आवश्वक है कि हम ऐसी सामग्री तैयार करें, जो अँग्रेजी-भाषी को इन भाषाओं को पुनरुज्जीवित  करने में मदद करे, पर इस ओर हमारी किन्ही भी भारतीय भाषा अकादमियों और संस्थाओं का ध्यान ही नहीं है और जब ध्यान ही नहीं है, तो ये सामग्री आखिर तैयार कैसे करतीं,  अतः वर्तमान सन्दर्भ में  जरूरत इस बात की है कि ऐसी सामग्री तैयार हो, जो अँग्रेजी वातावरण में पले-बढ़े गुजराती-मूल के  बच्चे को गुजराती सीखने में, मराठी-मूल  के  बच्चे को मराठी सीखने में, कन्नड़-मूल के  बच्चे को कन्नड़, तमिल-मूल के  बच्चे को तमिल, तेलुगु-मूल के  बच्चे को तेलुगु आदि सीखने में मदद करे और जिन्हें टूटी-फूटी भारतीय भाषा के प्रयोग आते हैं, उनकी उन भारतीय भाषाओं के प्रयोग को समृद्ध करने में मदद करे, तभी इन भारतीय मूल के लोगों में भारत बचेगा, भारतीयता बचेगी, पर यह काम कठिन काम है, क्योंकि यह बहुत  श्रम-साध्य भी है और धन-साध्य भी…..और इसके लिए सबसे पहले सरकारों या संस्थाओं की राजनीति इच्छा हो, तो पहले तो वो होना मुश्किल है और वह हो भी जाए, तो ऐसे लोग मिलना मुश्किल है, जो इस श्रम-साध्य काम को करने के लिए तैयार हों, पर असंभव नहीं है। भारत को बचाने की प्रबल इच्छा सबसे जरूरी है, जब वह हो जागी, तो फिर रास्ते भी निकलेंगे      

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